यह तो हो सकता है कि अखिलेश की कहानी ‘ ग्रहण की बदबू ' की अपेक्षा सूरजपाल चैहान की कहानी की बदबू ज़्यादा तेज़ और सघन हो और दूर तक पीछा करती हो तथा अखिलेश जिस बदबू में अपनी प्रतिभा के विकास के साक्ष्य देख रहे हों या अपनी पक्षधरता की व्याकुलता, वहीं सूरजपाल चैहान की यह गंध एक समुदाय कि यातना के रूप में सताती हो ; परन्तु प्रश्न यही है कि वह इस गंध या इस गंध से पैदा हुई व्यथा से क्या काम लेना चाहते हैं।